आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज को ‘भारत रत्न’ की उपाधि मिलनी चाहिए – डॉ . प्रगति जैन

मनावर से शकील खान

आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज को ‘भारत रत्न’ की उपाधि मिलनी चाहिए – डॉ . प्रगति जैन

परम पूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज की साधना एवं वीतरागी जीवन सभी के लिए प्रेरणास्रोत है। ‌ संपूर्ण विश्व को वर्तमान के महावीर अहिंसात्मक जीवन शैली को प्रशस्त करने का संदेश देकर गए हैं जो प्राणी मात्र के लिए कल्याणकारी है। उन्होंने पंचेद्रिय से लेकर एकेंद्रीय जीवों की रक्षा को दृष्टिगत रखते हुए सदैव प्रकृति के साथ सद्भाव पर ज़ोर दिया। उनके योगदान ने न केवल जैन साहित्य को और दर्शन को समृद्ध किया वरन् संपूर्ण विश्व को सामाजिक न्याय, सत्य, सदाचार व करुणा का संदेश दिया। आत्म कल्याण के साथ-साथ आपने विश्व कल्याण की भावना रखी । उनके द्वारा हम सब को यह प्रेरणा मिलती है कि कैसे जीवन जीएं और कैसे अंतिम समय की तैयारी कर शरीर को त्यागें। किसी ने नहीं सोचा था कि आचार्य श्री हम सबको इतनी जल्दी छोड़ कर चले जाएंगे। उनके गुणानुवाद को शब्दों में नहीं बांधा जा सकता । आचार्य भगवन्त शिक्षा में विदेशी भाषा के बढ़ते हुए प्रभाव को लेकर चिंतित थे। उनका मानना था कि भाषा और समाज का निकटतम संबंध है l उनका कहना था कि प्राचीन भारतीय अर्थव्यवस्था के प्रमुख घटक कृषि व हतकरघा थे। इसी से भारत सोने की चिड़िया था। उनका मानना था कि कोई ना रहे बेरोजगार व स्वाभिमानी बन जाएं स्वरोजगार। इस हेतु उन्होंने गांधी का हथकरघा पद्धति अपनाने को कहा l उनका कहना था कि लोकतंत्र में दृष्टि चेतन की ओर होती है किंतु लोभतंत्र में दृष्टि अचेतन की ओर होती है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी का कहना है की गुलामी से मुक्ति के लिए हथकरघा एक सशक्त हथियार था तो आज़ाद भारत में गरीबी से मुक्ति के लिए आज भी यह हथियार बन सकता है। आचार्य भगवंत की दूरदर्शिता ने आर्थिक सुरक्षा के साथ नैतिकता, संस्कृति व चारित्र धर्म पर बल दिया । संप्रदाय से परे महान संत के कार्यों व उपदेशों से करोड़ों लोग लाभान्वित हुए। कई ब्रह्मचारी, गुरु -भक्त बड़े-बड़े पदों का त्याग कर आध्यात्मिकता की ओर अग्रसर हुए व समाज के कल्याण में लगे l आचार्य श्री सदैव अपने प्रवचनों में इस बात पर बल देते थे कि इंडिया नहीं भारत बोलो l उनके कल्याणकारी कार्यों एवं भारतीय संस्कृति को प्रचारित प्रसारित करने के लिए उन्हें भारत रत्न की उपाधि मिलनी चाहिए l उनका कहना था कि शिक्षा के क्षेत्र में संस्कार की मिश्री अवश्य घोलनी चाहिए क्योंकि आचरण के बिना बोलना व्यर्थ है और ज्ञान के बिना औरों को समझना व्यर्थ है। उनके प्रति सच्ची विनयांजलि तभी होगी जब हम उनके द्वारा बताए गए मार्ग व सिद्धांतों को अपनाकर एक सच्चे आराधक बनें और समाज, देश व विश्व में भारतीय संस्कारों-मूल्यों व साहित्य-दर्शन को प्रचारित- प्रसारित करें l उनके कार्यों को आगे बढ़ाएं व उनके द्वारा स्थापित की गई शिक्षण संस्थानों में बच्चों को नैतिक मूल्यों व संस्कारों की शिक्षा प्रदान की जाती रहे ताकि एक स्वस्थ भारत का निर्माण किया जा सके।

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