कथावाचक अनमोल श्री दीदी ने दार्शनिक दृष्टि से समझाया मंथन का मर्म, सहयोग, संघर्ष और सहनशीलता ही सफलता का सूत्र; शिव ने विष पीकर सिखाया परोपकार– अनमोल श्री जी ने दार्शनिक दृष्टि से समझाया मंथन का मर्म

राजेश माली सुसनेर

कथावाचक अनमोल श्री दीदी ने दार्शनिक दृष्टि से समझाया मंथन का मर्म, सहयोग, संघर्ष और सहनशीलता ही सफलता का सूत्र; शिव ने विष पीकर सिखाया परोपकार– अनमोल श्री जी ने दार्शनिक दृष्टि से समझाया मंथन का मर्म

सुसनेर। ग्राम नाहरखेड़ा में अंतर्राष्ट्रीय कथावाचक अनमोल श्री दीदी के मुखारविंद से आयोजित हो रही श्रीमद् भागवत कथा में शनिवार की कथा के एक अत्यंत प्रतीकात्मक और दार्शनिक प्रसंग समुद्र मंथन का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया। कथावाचक अनमोलश्री ने इस महान घटना को केवल एक पौराणिक कथा नहीं, बल्कि मानव जीवन में प्रयास, परोपकार और सफलता का मूल मंत्र बताया।

संघर्ष और सहयोग की अनिवार्य शर्त

कथा व्यास अनमोल श्री जी ने बताया कि समुद्र मंथन का आयोजन अमृत प्राप्त करने के लिए किया गया था, जिसके लिए देवताओं और असुरों दोनों ने मिलकर काम किया। मंदराचल पर्वत को मथनी और वासुकि नाग को रस्सी बनाया गया।

अनमोल श्री जी ने इस सहयोग की अनिवार्यता को समझाते हुए कहा

 “यह मंथन हमें सिखाता है कि जीवन में बड़ा लक्ष्य प्राप्त करने के लिए विरोधी शक्तियों (देव-असुर) का भी सहयोग लेना पड़ता है। मंदराचल पर्वत हमारा अडिग प्रयास है और वासुकि नाग काल (समय) का प्रतीक हैं, जिनका उपयोग करके ही हम जीवन के सागर को मथ सकते हैं।

सबसे पहले विष का प्राकट्य: सहनशीलता की परीक्षा

कथा का सबसे महत्वपूर्ण बिंदु तब आया जब मंथन से सबसे पहले भयानक ‘हलाहल’ (विष) निकला। इस विष की ज्वाला से तीनों लोक जलने लगे।

अनमोल श्री जी ने इस क्रम का गूढ़ रहस्य खोला, “जीवन में अमृत या सफलता तुरंत नहीं मिलती। सफलता के लिए किए गए प्रयास (मंथन) से पहले हमेशा विष (कठिनाइयां, निंदा, कष्ट) ही बाहर आता है। यह हमारी सहनशीलता की परीक्षा होती है।”

उन्होंने भगवान शिव के विषपान के प्रसंग पर प्रकाश डालते हुए कहा, “भगवान शिव ने उस विष को पीकर संसार को यह सिखाया कि कष्ट और बुराई को स्वयं के भीतर धारण करके दूसरों के लिए अमृत छोड़ना ही सच्चा परोपकार है।”

मन का मंथन ही सच्चा भागवत धर्म

पूज्य अनमोल श्री जी ने भक्तों को प्रेरित करते हुए कहा कि समुद्र मंथन वास्तव में हमारे मन के मंथन का प्रतीक है। हमारे मन में भी देव (सद्गुण) और असुर (दुर्गुण) दोनों हैं।

उन्होंने कहा, “जब हम अपने मन का मंथन सत्संग और साधना से करते हैं, तो पहले विष रूपी अहंकार, काम और क्रोध बाहर आते हैं। जब हम इन बुराइयों को त्याग देते हैं, तभी हमें अंत में ‘अमृत’ रूपी शांति, ज्ञान और आनंद की प्राप्ति होती है।”

कथा के इस दार्शनिक वर्णन से श्रोताओं ने जीवन के हर संघर्ष को स्वीकार करने का संकल्प लिया। भक्तों ने भगवान शिव की करुणा को नमन किया।

चित्र 1 व 2 : ग्राम नाहरखेड़ा में आयोजित भागवत कथा सुनाती कथावाचक अनमोलश्री दीदी।

चित्र 3,4,5 : भागवत कथा में उपस्थित श्रोता।

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