गांव की सरकारी स्कूल और गांव के प्राइवेट स्कूल की तुलना

गांव की सरकारी स्कूल और गांव के प्राइवेट स्कूल की तुलना

 अधो संरचना

गांव के सरकारी स्कूल लाखों रुपए खर्च करके और प्रतिवर्ष मरम्मत की राशि खर्च करने के बावजूद 90% में पानी टपकता रहता है न ही सही से टॉयलेट न बैठने के लिए उचित फर्नीचर ,इसके विपरीत प्राइवेट स्कूलों में चाहे टीन चडे‌‌ हो पर पानी नहीं टपकता है और ना ही आज तक किसी पालक ने इस प्रकार की शिकायत शासन से की है।,उचित बैठने के लिए फर्नीचर और नियमित सभी कार्य अनुशासन में….

 शैक्षणिक स्टाफ

शासकीय प्राथमिक विद्यालयों में औसतन दो शिक्षक पदस्थ हैं जबकि अशासकीय विद्यालयों में हर विषय का अलग शिक्षक है।

 नियमितता और समयबद्धता

शासकीय विद्यालयों में शायद ही ऐसा कोई दिन जाता हो जब शायद ही ऐसा कोई दिन जाता हो जब पेपर मे विद्यालय बंद होने या देर से खुलने की खबर ना आती हो परंतु अशासकीय विद्यालयों में इस प्रकार की कोई भी शिकायत कभी किसी पलक को नहीं रहती यदि विद्यालय प्रातः 7:30 पर खुलता है तो सभी शिक्षक 7:15 पर स्कूल में उपस्थित हो जाते हैं सभी क्लासों में सभी विषय के पीरियड लगकर पढ़ाई होती है।

 छात्रों पर व्यय

शासकीय प्राथमिक विद्यालयों में पूरे प्रदेश में औसतन 30 छात्र संख्या पर दो प्राथमिक शिक्षक पदस्थ हैं जिनकी वेतन औसतन 50,000 रुपए है जिससे वर्ष भर में 12 लाख एवं किताबें और अन्य खर्च मिलाकर करीब 15 लाख रुपए शासन खर्च करती है प्रत्येक छात्र पर करीब₹50000 का खर्च शासन को बहन करना पड़ता है जबकि उन्हीं छात्रों को शासन प्राइवेट स्कूलों में आरटीई के तहत प्रवेश कर मात्र 5000 मैं अशासकीय विद्यालयों से करवाती है जिसका पैसा भी समय पर नहीं दे पाते है जिसके लिए आए दिन प्राइवेट स्कूल संचालक विरोध प्रदर्शन भी करते दिखाई देते है

 पालकों की रुचि

शासन के सर्वसुविधा युक्त पक्के भवन जिनमें आरटीई के प्रावधानों के तहत पर्याप्त जगह ,रैंप,लाइब्रेरी, पीने के पानी की पर्याप्त व्यवस्था, प्रशिक्षित शिक्षक, एनसीईआरटी की पुस्तक जैसी शानदार व्यवस्था होते हुए भी पालक इन की अपेक्षा प्राइवेट स्कूलों में पढ़ाना पसंद करते हैं

 निगरानी या मॉनिटरिंग

शासकीय विद्यालयों की मॉनिटरिंग आईएएस अधिकारियों से लेकर विभाग के बहुत ही अनुभवी कई स्तर के अधिकारी एवं समन्वयक करने के बावजूद ना तो विद्यालय समय पर खुल पाए हैं और ना ही उनमें पढ़ाई हो पाती है जबकि अशासकीय विद्यालयों पर केवल उनके प्रधान अध्यापक और संचालक की निगरानी में बिना मॉनिटरिंग खर्च के समय पर विद्यालय खोलने हैं एवं पालकों को संतुष्ट करने लायक पढ़ाई भी होती है

 निष्कर्ष

दो-दो ,तीन-तीन साल तक आरटीई का पैसा ना देकर शासन मेहनती शिक्षकों की मेहनत का फल समय पर नहीं दे पा रही है बल्कि आर्थिक रूप से कमजोर कर शिक्षा की नीव भी कमजोर कर रही है

एक प्राइवेट स्कूल संचालक की कलम से……

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