*गुना जिले में बमोरी विधानसभा की दिलचस्प बाजी!*

बमोरी की वादियों में एक बार फिर चुनावी रणभूमि तैयार हो चुकी है। विधानसभा क्षेत्र की बनावट जितनी दुर्गम है, उतना ही यहां का जटिल चुनावी इतिहास रहा है। यह सीट खेल बिगाड़ने वालों के हिसाब से भी दिलचस्प भूमिका अदा करती रही है। साल 2008 में अस्तित्व में आई इस सीट पर अब तक की राजनीति पूर्व मंत्री कन्हैयालाल अग्रवाल और वर्तमान मंत्री महेन्द्र सिंह सिसौदिया के इर्द-गिर्द ही घूमती रही है। अब दोनों के साथ स्थिति यही है कि कांग्रेसी ही भाजपाई है और भाजपाई ही कांग्रेसी है। मतलब अग्रवाल पुराने भाजपाई होकर अब कांग्रेस में है। वहीं सिसौदिया पुराने कांग्रेसी होकर अब भाजपाई हैं। यह सीट हमेशा से ही रोचक मुकाबलों के लिए जानी जाती रही है। बात यहां 2008 में हुए पहले चुनाव की जबकि यहां भाजपा की ओर से केएल अग्रवाल और संजू सिसौदिया के बीच मुकाबला हुआ। पहला सवाल उठा कि धाकड़-किरार बहुल सीट पर अग्रवाल को टिकट क्यों? मुख्यमंत्री की बमौरी में सभा थी अग्रवाल के खिलाफ बाहुल्य समाज की गोलबंदी हो रही थी। तब मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चैहान ने इशारों में यह कहकर मामला संभाला कि समाज के प्रतिनिधि के रूप में आप तो मुझे देखो! इससे बात संभल भी गई। बहरहाल मतदान के बाद मतगणना हुई! यह भी बमौरी की घाटियों की तरह ही उतार-चढ़ाव से भरपूर रही। आरंभ के राउंडों में संजू सिसौदिया ने बढ़त बनाई। एक समय तो लगा कि सिसौदिया की जीत पक्की है, लेकिन आखिरी के राउंड में बाजी पलट गई अग्रवाल जीत गए और शिवराज केबिनेट में मंत्री बने। बहरहाल इस चुनाव में गौरतलब बात यह कही गई कि पुराने कांग्रेसी देवेन्द्र सिंह रघुवंशी ने बसपा के टिकट पर चुनाव लड़कर सिसौदिया का खेल बिगाड़ दिया। क्योंकि केएल की जीत का अंतर पांच हजार से भी कम था और देवेन्द्र सिंह ने 17 हजार से अधिक वोट हासिल किए थे। इसे प्रमुख रूप से कांग्रेसी वोटों में ही सेंधमारी कहा गया था। अब कमाल देखिये 2013 के चुनाव में संजू सिसौदिया ने बाजी पलट दी। अबकी बार उन्होंने कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ते हुए मप्र शासन मंत्री पद पर काबिज केएल अग्रवाल को करारी शिकस्त देकर क्षेत्रीय राजनीति में तहलका मचा दिया। इसी क्रम में 2018 में भाजपा ने पुरानी पराजय और क्षेत्रीय सामाजिक संरचना को ध्यान में रखते हुए केएल अग्रवाल को टिकट न देते हुए बृजमोहन सिंह आजाद को टिकट दिया। जिससे नाराज होकर केएल बागी हो गए और निर्दलीय चुनावी दंगल में कूद गए। केएल इस चुनाव को जीत तो नहीं पाए, लेकिन राजनीतिक क्षेत्रों में ऐसा माना गया कि वह आजाद के विजयी अभियान में रोड़ा बन गए। क्योंकि आजाद और अग्रवाल को मिले वोटों का योग कांग्रेस संजू सिसौदिया को मिले कुल वोटों के लगभग बराबर हो रहा था। बहरहाल जैसा कि सभी विदित है कि 2020 के बाद मध्यप्रदेश की राजनीतिक परिस्थितियां बदलीं। जिस पर बमौरी में उपचुनाव हुए। अबकी बार महेन्द्र सिंह सिसौदिया भाजपाई बनकर मैदान में उतरे? तो कांग्रेस ने भी उनके पुराने प्रतिद्वंदी केएल अग्रवाल को ही मैदान ए जंग में उतारा। इस उपचुनाव में सिसौदिया ने एक लाख से अधि कमत हासिल करते हुए अपने चुनावी जीवन की सबसे बड़ी जीत हासिल की। जैसा कि बमौरी का चरित्र है। यहां चुनाव में ही नहीं बल्कि टिकट की जंग जीतना भी बहुत चुनौतीपूर्ण होता है। अबकी बार 2023 के चुनाव में भी कुछ ऐसा ही देखने को मिला। कांग्रेस और भाजपा दोनों में ही भारी खींचतान और संशय का वातावरण रहा। कांग्रेस में आरंभ से तीन नाम सुमेर सिंह गढ़ा, ऋषि अग्रवाल और मुरारीलाल धाकड़ के नाम प्रमुखता से चल रहे थे। इनमें से केएल अग्रवाल के बेटे ऋषि ने टिकट में बाजी मार ली। उधर भाजपा में सबसे प्रबल दावेदार मंत्री महेन्द्र सिंह सिसौदिया थे। लेकिन उनके टिकट की घोषणा में विलंब के चलते भारी उहापोह का वातावरण बना रहा। भाजपा में कोई खुलकर तो दावेदारी करने आ रहा था। लेकिन समर्थकों की ओर से महेन्द्र सिंह किरार का नाम जोरदार तरीके से सामने रखा जाता रहा। बमोरी सीट पर जब कांग्रेस की ओर से सबसे प्रबल दावेदार वरिष्ठ सुमेरसिंह की जगह युवा ऋषि को टिकट दिया गया। तब सिसौदिया के नाम की घोषणा में विलंब के चलते भाजपा में भी इस बात की अटकलें प्रबल हो गईं कि शायद भाजपा जातीय समीकरणों को ध्यान में रखते हुए युवा महेन्द्र किरार को मैदान में उतारे। बहरहाल अंततः सिसौदिया ने ही टिकट की बाजी जीत ली। बमौरी को लेकर कहा जा रहा है कि जब टिकट हासिल करना इतना कठिन था तो धमासान कितना बड़ा होने वाला है। दरअसल टिकट वितरण के बाद कांग्रेस और भाजपा दोनों ही आंतरिक कलह का सामना कर रहे हैं। भाजपा का दिखाई कम दे रहा है, लेकिन सोशल मीडिया पर कांग्रेस का तो खुले रूप में प्रकट होता रहा है। मतलब एक दूसरे की चुनौती के साथ ही आंतरिक संघर्ष और असंतोष को थामना दोनों दलों के लिए बड़ी समस्या है। अभी तक असंतोष के बाद भी खेल बिगाड़ने के लिए कोई बड़ा बागी महारथी चुनावी जंग मैदान में नही आया है, जो दोनों तात्कालिक रूप से संतोष की बात है। क्योंकि नामांकन पत्र दाखिल करने की अंतिम तारीख तक कुछ भी नहीं कहा जा सकता है। बमौरी में इस चुनाव में चेहरे पुराने हैं, केवल उनकी पार्टियां बदल गई हैं। ऐसे में पार्टी वोट से अधिक व्यावहारिक वोट अधिक पड़ेगा। जिसका जितना अधिक व्यवहार होगा, वह उतना अधिक वोट हासिल कर लेगा। कुल मिलाकर बमौरी की बाजी अब इस बात पर निर्भर है कि कौन महारथी आंतरिक असंतोष पर रोक लगाते हुए व्यक्तिगत कौशल से जनमर्थन जुटाने में कामयाब होता है।










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