मोहन शर्मा SJ न्यूज एमपी
मध्यप्रदेश की राजनीति में चुनावी रंग नजर आने लगा है। टिकट की तलाश में आयाराम गयाराम का खेल शुरू हो गया है। कार्यकर्ताओं की सक्रियता बढ़ाने के साथ ही संभावनाओं को बताने वाले ओपिनियन पोल आने लगे हैं। मतदाताओं को लुभाने के लिए लालची योजनाओं की घोषणाओं का सिलसिला भी आरंभ हो गया। प्रदेश का चुनाव इस बार थोड़े अलग रंगमंच पर होना है, जिसके परिणाम राज्य की भावी राजनीति का भी निर्धारण करेंगे। ऐसे में कई सवालों और कयासों के बीच से प्रदेश गुजर रहा है। सबसे बड़ा सवाल है कि क्या भाजपा 23 का चुनाव शिवराज सिंह के नेतृत्व में ही लड़ेगी? कांग्रेस से भाजपा में आए ज्योतिरादित्य सिंधिया प्रदेश की राजनीति में कितना दबदबा रख पाएंगे। इसके अलावा कमलनाथ कांग्रेस के लिए एक बार फिर कोई कमाल कर पाएंगे?बात आरंभ करते हैं मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चैहान से। जिनका प्रदेश में 17 साल का कार्यकाल हो गया है। जिनके बारे में आए दिन चर्चाओं का बाजार गर्म हो जाता है कि केन्द्रीय नेतृत्व उनकी सेवाएं दिल्ली में लेने को आतुर है, और उनकी जगह किसी नए चेहरे लाना चाहता है। राजनीतिक सूत्रों का कहना है कि इसमें कोई दो राय नहीं कि केन्द्रीय नेतृत्व शिवराज की लंबी पारी पर विराम लगाना चाहता है, लेकिन सवाल है कि उनका विकल्प कौन हो? यही जटिल सवाल हाईकमान को उलझाए हुए है और शिवराज की कुर्सी को सलामत बनाए है। दरअसल प्रदेश भाजपा के पास प्रदेश स्तर पर काबिल नेताओं की कोई कमी नहीं है। सामान्य वर्ग से ऐसे नेताओं का अंबार है, लेकिन भाजपा केन्द्रीय स्तर पर ओबीसी को आगे रखने का मैसेज दे रही है, तो वह मध्यप्रदेश में विपरीत धारा को कैसे अपनाए? क्योंकि शिवराज के कद के बराबर का ओबीसी नेता वह अभी तक शायद खोज नहीं पाई है। बहरहाल एक नाम विकल्प के तौर पर कांग्रेस से आए ज्योतिरादित्य सिंधिया का आता है। जिनकी राह में सबसे बड़ी बाधा उनके आने के बाद मूल भाजपा और उनकी भाजपा के बीच सामंजस्य की स्थिति नहीं बन पाना है। एक चर्चा यह भी है कि भाजपा उन्हें कोई भी बड़ी जिम्मेदारी देने से पहलीे उनके राजनीतिक पराक्रम को एक बार और परखना चाहती है। ताकि मूल भाजपा में छाए असंतोष को स्वतः रूप से नियंत्रित किया जा सके। इस बीच शिवराज समर्थकों का तर्क है कि लंबी पारी से क्या मतलब है। उड़ीसा में नवीन पटनायक को दो दशक से अधिक का समय हो गया और बंगाल में ज्योति बसु तीन दशक तक काबिज रहे थे। अवधि के बजाए जनता पर पकड़ महत्वपूर्ण है। बहरहाल राजनीति संभावनाओं का खेल है। जिसमें अगले पल के बारे में दावे से नहीं कहा जा सकता है, लेकिन अनुमान ऐसा ही है कि चुनाव तो भाजपा शिवराज सिंह के नेतृत्व में लड़ने वाली है। यह बात लगभग पक्की होती जा रही है। अगर प्रदेश भाजपा में परिवर्तन भी हुआ तो संगठन स्तर पर हो सकता है। अब बात करते हैं कांग्रेस की। पिछला चुनाव कांग्रेस ने ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ लड़ा था। तब ऐसा माना गया था कि कांग्रेस की जीत में सिंधिया का बड़ा योगदान था और इसी आधार पर समर्थकों ने कमान सौंपे जाने की मांग भी की थी। जो पूरी नहीं हुई और उसकी कीमत कांग्रेस ने सरकार खोकर चुकाई थी। कांग्रेस एक बार फिर कमलनाथ के चेहरे पर मैदान में है। अब सवाल है कि महाकौशल के नेता के रूप में स्थापित रहे कमलनाथ पूरे प्रदेश में अपना कौशल दिखा पाने की स्थिति में होंगे। पिछले चुनाव में भोपाल से लेकर ग्वालियर तक के एबीरोड पर पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह और ज्योतिरादित्य सिंधिया ने अपने प्रभाव क्षेत्रों में जोर लगाते हुए कांग्रेस को महत्वपूर्ण बढ़त दिलाई थी। अब सवाल है कि क्या दिग्विजय सिंह ग्वालियर चंबल और मध्य में सिंधिया के प्रभाव क्षेत्र में दबदबा कायम करते हुए कांग्रेस को विजयपथ पर ले जोने का मार्ग प्रशस्त कर पाएंगे। दरअसल ग्वालियर चंबल संभाग में यह घारणा प्रबल रही है कि यहां कांग्रेस और भाजपा के अलावा सिंधिया का अपना व्यक्तिगत जनाधार भी है। जो उनके साथ हमेशा चलता है और इसी आधार का लाभ लेकन समय≤ पर कांग्रेस और भाजपा लाभ उठाती रही हैं। यह स्थिति राजमाता विजयाराजे सिंधिया और माधवराव सिंधिया के जमाने से चलती आ रही है। पहले परिवार का एक सदस्य कांग्रेस और एक भाजपा में रहता था, तो एक बेलेंस की स्थिति रहती थी। वहीं ज्योतिरादित्य सिंधिया के आने बाद यह संतुलन समाप्त हो गया है। कहने का आशय एक दम नई स्थिति है। ग्वालियर चंबल संभाग में एक ओर भाजपा की ओर से ज्योतिरादित्य सिंधिया के पराक्रम की परख होनी है। वहीं कांग्रेस की ओर से नेतृत्व की निगाहें इस बात पर होंगी कि क्या दिग्विजय सिंह ज्योतिरादित्य सिंधिया के रिक्त स्थान को किस हद तक भर पाते हैं। इस मायने में कांग्रेसी समीकरणों के हिसाब से भी यह चुनाव दूरगामी असर डालने वाला है। अभी का आकलन केवल कांग्रेस और भाजपा को लेकर हो रहा है। राज्य के राजनीतिक पटल पर अभी एक और आम आदमी पार्टी की भूमिका को लेकर असमंजस है। आप की भूमिका इस बात तय होने वाली है कि नेशनल लेबल पर विपक्षी एकता के बीच कांग्रेस से उसकी कैसी पटरी बैठती है। केजरीवाल अभी अध्यादेश पर कांग्रेस से समर्थन मांग रहे हैं। कांग्रेस के दिल्ली और पंजाब के नेताओं के कड़े विरोध के चलते हाईकमान कुछ तय नहीं कर पा रहा है। अब आप मध्यप्रदेश में कितनी ताकत से चुनाव लड़ेगी। यह केजरीवाल और कांग्रेस के बीच दिल्ली समझौते पर निर्भर करेगा। अगर दोनों के बीच दिल्ली पैक्ट हुआ तो आप केवल उपस्थिति दर्ज कराने के मूड से मैदान में उतरेगी। अगर नहीं हुआ तो वह मध्यप्रदेश को कांग्रेस के लिए दूसरा गुजरात बनाने की कोशिश कर सकती है। हालांकि यह बात अलग है कि गुजरात और मध्यप्रदेश की स्थिति में अंतर है, लेकिन वह वोटों का विभाजन करके कांग्रेस के लिए संघर्ष को और कठिन बना सकती है। क्योंकि ऐसा अनुमान लगाया गया है कि आप को जो वोट मिलते हैं। वह 75 प्रतिशत कांग्रेस के और 25 भाजपा के होते हैं। ऐसे में आम आदमी पार्टी का रवैया भी समीकरणों को बनाने बिगाड़ने में अपनी भूमिका अदा कर सकता है। इसके अलावा कई अन्य छोटे क्षेत्रीय दल कड़े मुकाबले में किसी का भी खेल बिगाड़ने में अपनी भूमिका निभाएंगे। कुल मिलाकर मुकाबला कश्मकश भरा होने वाला है।
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