क्षमा से उत्तम क्षमा की ओर डॉ प्रगति जैन शिक्षाविद
धर्म का आरंभ तभी होता है जब क्षमा की भावना मन में जागृत होती है। क्षमा के बिना धर्म की कोई अवधारणा नहीं हो सकती। जैन धर्म में क्षमा की जो गहन परिभाषा है, वह किसी साधारण माफी से कहीं अधिक गहरी और व्यापक है। यह न केवल “मुझे माफ कर दो” या “मैं तुम्हें माफ करता हूँ” की सतही धारणा है, बल्कि एक ऐसी आंतरिक शुद्धि है जो हमें उस स्थिति तक ले जाती है, जहाँ हमें किसी से माफी माँगने की आवश्यकता ही नहीं रहती। यह सर्वोच्च क्षमा की अवधारणा है।
जैन शिक्षाओं के अनुसार, मोक्ष प्राप्ति के लिए दो दृष्टिकोणों की आवश्यकता होती है—वास्तविक और व्यवहारिक। आध्यात्मिक विकास के लिए इन दोनों का होना आवश्यक है। वास्तविक दृष्टिकोण से आत्मा के शुद्ध स्वरूप का बोध होना चाहिए, और व्यवहारिक दृष्टिकोण से उस शुद्धता को जीवन में उतारना चाहिए। यह मोक्ष प्राप्ति की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है।
मोमबत्ती की लौ से धुआं और प्रकाश दोनों निकलते हैं। जहाँ प्रकाश होता है, वहाँ धुआं नहीं हो सकता और जहाँ धुआं होता है, वहाँ प्रकाश नहीं हो सकता। इसी प्रकार आत्मा में ज्ञान और क्रोध दोनों होते हैं। जहाँ ज्ञान होता है, वहाँ क्रोध नहीं होता और जहाँ क्रोध होता है, वहाँ ज्ञान नहीं होता। दोनों एक-दूसरे से भिन्न हैं।
हम अक्सर बाहरी दुनिया में गलती ढूंढते हैं, लेकिन असली क्षमा आत्मा की ओर होती है। जब हम आत्मा से जुड़े नहीं होते, तो हम गलतियाँ करते हैं। इसी अज्ञानता के कारण हम अनगिनत जन्मों से कष्ट भोग रहे हैं। आत्मज्ञान की प्राप्ति ही सुख-दुःख की सच्ची पहचान कराती है। हम पंच परमेष्ठी हैं—सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान और सम्यक चरित्र के धारक। लेकिन हम अपने शुद्ध स्वरूप और ज्ञाता-द्रष्टा स्वरूप को भूल चुके हैं।
जैसे गंदे कपड़े को साफ करने के लिए साबुन का उपयोग किया जाता है और फिर उसे धोकर हटा दिया जाता है, वैसे ही आत्मा को शुद्ध करने के लिए व्यवहारिक दृष्टिकोण का उपयोग किया जाता है। लेकिन एक बार आत्मा शुद्ध हो जाए, तो उस व्यवहारिक दृष्टिकोण को त्यागकर आत्मा को शुद्ध ही बनाए रखना चाहिए।
क्षमा से उत्तम क्षमा की यात्रा, बाहिरात्मा से परमात्मा तक की यात्रा की तरह है। भौतिक दुनिया में रहकर, कमल के पत्ते की तरह कीचड़ से अछूते रहना, और आत्मा की शुद्ध अवस्था में खिलना—यही जैन शास्त्रों का असली सार है।
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